शनिवार, 17 सितंबर 2011

फिर आग का दरिया है और डूब के जाना है !

एक मौसम सी मुहब्बत का 
बस इतना सा फ़साना है !
कागज़ की हवेली है ,
बारिश का ज़माना है !
क्या शर्त-ए- मोहब्बत है  ,
क्या शर्त-ए-ज़माना है 
आवाज़ भी ज़ख़्मी है,
और वो गीत भी गाना है !
उस पार उतरने की
उम्मीद बहुत कम है .
कश्ती  भी पुरानी  है,
तूफ़ान  को  भी आना  है 
समझें या न समझें वो ,
अंदाज़ मोहब्बत के .
एक ख़ास शख्स को 
आँखों से शेर सुनाना  है 
भोली सी अदा कोई 
फिर इश्क की ज़िद पर है 
फिर आग का दरिया है
और डूब के जाना है !